प्रेम अम्बर का धरा से
प्रेम अम्बर का धरा से
ताकना दिन- रात ऐसे,
मूक संकेतों से करते
हैं परस्पर बात जैसे |
रात में रोता गगन है ,
दिवस में तपती धरा है ,
मिलन हो सकता है नहीं ,
कैसी प्रेम की परंपरा है !
धीर- धारिणी पवन मार्फ़त
भेजती सन्देश नभ को ,
गरजकर व्याकुल गगन,
कर देता है खबर सबको |
देखना बस दूर से
पर मिल नहीं पाना परस्पर ,
सोचिये , कैसी विकट स्थिति
झेलते हैं दोनों अक्सर |
है कोई उदहारण
धरती - गगन के प्रेम जैसा ?
कई प्रेम - प्रसंग देखे ,
देखा कभी न प्रेम ऐसा |
" प्रवेश"
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