हे मानव ! मैं हूँ प्रकृति
तू भूल गया मेरी प्रवृत्ति
तुझे कुछ याद दिला दूँ मैं
तेरा स्थान बता दूँ मैं।
तू पर्वत - जंगल काट - काट
बनाने चला सड़कें सपाट
नदी के मुहाने मोड़ चला
तू स्वयं विनाश की ओर चला।
कर दी पारिस्थितिकी छिन्न - भिन्न
तू ही उत्तम, सब और निम्न !
तेरी स्वार्थ-नीति सर्वत्र बही
आखिर ! कितना सहेगी मही !!
तूने बहुविधि बहु पाठ पढ़े
समतल में ऊँचे भवन गढ़े
खेतों में सघन नगर उपजे
बरसें तो मेघ किधर बरसें ?
तू आगे बढ़ किन्तु ये स्मरण रहे
जिस क्षण तक रवि में किरण रहे
मैं पलटवार कर सकती हूँ
पुनः निज स्वरूप धर सकती हूँ।
जहाँ जंगल थे, जंगल फिर होंगे
न रुका, अमंगल फिर होंगे
जहाँ बहती थी नदी, बहेगी वहीं
तेरी दासी नहीं रहेगी मही। ~ प्रवेश ~
मोदी जी से पूछा ? वही बह सकती है क्या?
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