Wednesday, August 17, 2016

शब्द उद्दण्ड हो गए

शब्दों को अब समझ न रही
अच्छे- बुरे की परख न रही
सार्वजनिक मंच क्या मिला
कि भूल गए खुद को ही
न हलन्त न विसर्ग की परवाह
न छोटी - बड़ी मात्रा की फ़िक्र
न मेल - मिलाप का तरीका
न भावों की कद्र
अपना स्वरुप तक तो याद नहीं
फिर भी लज्जाहीन उछल - कूद
नहीं जानते कि इनकी नासमझी
नष्ट कर देती है नवांकुरित कवियों को
लेखकों को गर्भ में ही मार देती है । ~ प्रवेश ~