Thursday, January 31, 2013

उसके अगले दिन

आज भी हमेशा की तरह
मैं फिर से जल्दी जाग गया ।
सूरज के उगने से पहले 
एक मील तक भाग गया ।

घर पहुँचा तो रोज की तरह 
श्रीमती जी को झकझोरा ।
फिर मैं प्राणायाम के लिये 
बैठ गया बिछाकर बोरा ।

श्रीमती ने स्लोली - स्लोली 
टेस्टी ब्रेकफास्ट बनाया ।
फिर वही सब हुआ 
जो अब तक होता आया ।

फिर मैं अपने दाँत पहनकर 
नाश्ता करने बैठ गया ।
एक पराँठे का टुकड़ा 
दाँतों के बीच में ऐंठ गया ।

उसके बाद मैं बन ठन कर 
साईकिल पर सवार हो गया ।
श्रीमती को टा - टा कहकर 
दफ्तर को फरार हो गया ।

गेट पर पहुँचा तो मुझको 
चौकीदार ने रोका ना ।
और पहले की तरह मुझे 
उसने सलाम भी ठोका ना ।

दफ्तर में पहुँचा तो
सबसे दुआ - सलाम हुई ।
किसी से नमस्कार तो
किसी से राम - राम हुई ।

मेरे नाम की तख्ती गायब
मेरा न कोई ठौर था ।
दफ्तर में मेरी कुर्सी पर
आज कोई और था ।

उसके बाद दस्तखत करने
जब रजिस्टर खोला ।
सुबह से अब तक सब चुप थे
बस रजिस्टर ही बोला ।

देखो कविता के अंत में
कैसा सैटायर हो गया ।
रजिस्टर मुझसे बोला
मैं तो कल रिटायर हो गया ।
                                           " प्रवेश "







2 comments:

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति प्रवेश जी
    उम्दा पंक्तियां ..............मेरे नाम की तख्ती गायब, मेरा न कोई ठौर था,
    दफ्तर में मेरी कुर्सी पर, आज कोई और था

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  2. shukriya fariyadi bhai

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