जून में जनवरी की फरियाद करता है ।
वही शख्स जनवरी में जून को याद करता है ।।
ठिठुरता है कम्बल , ठिठुरती है रजाई भी ।
अंगीठी काँपती है , लकड़ियाँ बरबाद करता है ।।
कुहरा वहम में डाले है , महताब के आफ़ताब !
सूरज को नमन भी दोपहर के बाद करता है ।।
कुछ निकल पड़े हैं काँपती देह को लेकर ।
पापी पेट है , हर मौसम से दो - दो हाथ करता है ।।
बड़े पैंसे वाले हैं, उन्हें सर्दी नहीं लगती ।
कहते हैं जमाना बेवजह बकवास करता है ।।
" प्रवेश "
वही शख्स जनवरी में जून को याद करता है ।।
ठिठुरता है कम्बल , ठिठुरती है रजाई भी ।
अंगीठी काँपती है , लकड़ियाँ बरबाद करता है ।।
कुहरा वहम में डाले है , महताब के आफ़ताब !
सूरज को नमन भी दोपहर के बाद करता है ।।
कुछ निकल पड़े हैं काँपती देह को लेकर ।
पापी पेट है , हर मौसम से दो - दो हाथ करता है ।।
बड़े पैंसे वाले हैं, उन्हें सर्दी नहीं लगती ।
कहते हैं जमाना बेवजह बकवास करता है ।।
" प्रवेश "
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