Tuesday, July 23, 2013

आज नहीं घर में दाना

सुन रे पंछी - तू कल आना
आज नहीं घर में दाना ।

खाली चावल की थाली है
गेहूँ का पीपा खाली है ।
मैंने भी नहीं खाया खाना
आज नहीं घर में दाना ।

हाँ , मैं ही अन्न उगाता हूँ
दुनिया को खिलाता हूँ ।
मैं भूमिपुत्र, सबने माना
पर आज नहीं घर में दाना ।

मैं हूँ किसान, मेरे खेत नहीं
मिट्टी भी नहीं और रेत नहीं ।
मैं बिना हृदय का दीवाना
आज नहीं घर में दाना ।

हाथ नहीं फैलाता हूँ
भीख माँग नहीं खाता हूँ ।
मुझे आत्महन्ता ही कहलाना
आज नहीं घर में दाना ।
                       " प्रवेश "

6 comments:

  1. धन्यवाद मान्यवर ....रचना को मान देने हेतु आपका हृदय से आभारी हूँ |

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  2. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  3. सच का आईना दिखाती रचना ...उम्दा

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