काश ! कि बचपन लौट के आता |
काश ! कि बचपन लौट के आता |
मैं फिर से बच्चा बन जाता |
काश कि बचपन लौट के आता |
कोई मुझको डांट लगाता ,
तो झट बाबा को बतलाता |
बाबा डांट लगाते जब तो ,
माँ के आँचल में छिप जाता |
मैं बस मेरे मन की करता ,
वश तो किसी का चल नहीं पाता |
काश ! कि बचपन लौट के आता |
खेलता अपने ही साये से ,
तरह - तरह के नक्श बनाता |
कभी कूदता , कभी उछलता ,
हँसता कभी , कभी रूठ भी जाता |
कभी कृष्ण तो कभी सुदामा ,
और कभी राधा बन जाता |
काश ! कि बचपन लौट के आता |
राग - द्वेष न पास फटकता,
दंभ - कपट न मन में होता |
ईर्ष्या - छल का ज्ञान न होता ,
न पापी भाव जहन में होता |
बच्चों में भगवान सुना है ,
और मैं भी भगवन बन जाता |
काश ! कि बचपन लौट के आता |
सब अपने , अपने ही होते ,
कोई भी तब गैर न होता |
सारे मन के मीत ही होते ,
और किसी से बैर न होता |
केवल प्रेम की भाषा होती ,
नफरत क्या है , जान न पाता |
काश ! कि बचपन लौट के आता |
"प्रवेश "
bahut khubsurat rachna , kash!ki bachpan lout ke aata pravesh bisht jee...bahut mithi yadein judi hain aapki kavita se...
ReplyDeleteFir se wo bachpan jino ko g krta hai
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