फख्र फर्क का !
कभी सोचता हूँ कि
फर्क करूँ
खुद में और
उन जानवरों में
जो मेहनत करते हैं
दिन - रात
केवल अपने
और अपनों के
पेट की खातिर |
मैंने देखा है
चिड़िया को
दूर तक जाते हुये
और दाना चुगकर
अपने चूजों के
मुँह में डालते हुये |
मैंने भटकते देखा है
कुतिया को भी
रोटी और हड्डी की खोज में
अपने पिल्लों के लिये |
बिल्ली को चूहे पर
झपट्टा मारते देखा है
और फिर ले जाते हुये
चूहे को बच्चों के पास |
शेर के छोड़े हुये
गोश्त के टुकड़ों पर
टूट पड़ते देखा है
लोमड़ियों और लकड़बग्घों को |
और जब तुलना की है
अपनी श्रेष्ठता की ,
तो कुछ अलग नहीं पाया
इन जानवरों से |
सुबह - सुबह निकलता हूँ
मजदूरी करने और
खाना जुटाने
परिवार की खातिर ,
और शाम तक
चार आधे पेटों के लिये
इंतजाम कर पाता हूँ |
कभी अपने और
अपनों के सिवाय
कुछ सूझा ही नहीं ,
कुछ भी न कर सका
जिससे साबित कर सकूं
अपनी श्रेष्ठता को
और इंसान होने पर
फख्र कर सकूं |
"प्रवेश "
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