कल का अख़बार
कल सुबह
साईकिल की टोकरी में बैठकर
इस घर तक आया था ,
सबसे पहले मुझे
दादीजी ने देखा और
दादाजी को बताया |
दादाजी ने बड़े प्यार से
मेरा दीदार किया |
कभी मंद- मंद मुस्काए ,
कभी भौंहे चढ़ा ली |
धीरे -धीरे मुझे
हर सदस्य ढूँढने लगा |
किसी ने ' समाज '
किसी ने ' परिवार '
किसी ने 'खेल '
तो किसी ने 'शेयर '
एक - एक कर सभी पन्ने
अलग कर दिए |
धीरे - धीरे सब अपने
काम में व्यस्त होने लगे ,
जो जहाँ था उसने
वहीँ पन्ने छोड़ दिये |
शाम होते - होते
मेरी अहमियत
समाप्त हो चुकी थी |
आज सुबह मेरे
सभी पन्ने समेटे गये ,
और ' कल का अख़बार '
कहकर डाल दिया रद्दी में |
कल मेरी कीमत
तीन रुपये थी ,
आज प्रति किलो तीन रुपये के
ढेर में पड़ा हूँ |
कभी हाथों - हाथ लिया ,
कभी गोद में बिठाया ,
कभी सीने से लगाया ,
कभी चूमा भी मुझे कल तक ,
लेकिन आज ... आज मैं बेकार हूँ |
जी हाँ.. मैं कल का अख़बार हूँ |
"प्रवेश "
woooo....bahaut badhiya
ReplyDeletebechare akhbar ka hr roz yahi harsh hota hai
gunjan ji .. aajkal agle din insan ki kadra nahi hoti.. akhbar ka ye hasra to kuchh bhi nahi..
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