Friday, October 12, 2012

जब मेरे शहर में चुनाव होते हैं

जब मेरे शहर में चुनाव होते हैं

रूठकर मायके गयी बिजली भी आने लगती है ।
नुक्कड़ पर पानी की टोंटी आँसू बहाने लगती है ।
टूटी पगडण्डी नये सपने सजाने लगती है ।
सड़क अपने चेहरे पर कालिख पुताने लगती है ।
दादी की रुकी हुई विधवा पेंशन आने लगती है ।
खादी बिजूकों के सामने भी सर झुकाने लगती है ।
एक शख्सियत लाशों को ढांढस बंधाने लगती है ।
हर गली से मय की भीनी खुशबू आने लगती है ।
कमली भिखारन सुबह - शाम  बिरयानी खाने लगती है ।
फिर जैसे - जैसे नतीजों की खबर आने लगती है ।
दो - चार महीनों की रौनक घर वापस जाने लगती है ।
                                                      
                                                           "प्रवेश "

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