अक्लमंद नादान
बेपरवाह है दर्द से , अपना नहीं गँवाया है ।
बेदर्दी ने शौक से , बेजुबाँ काटकर खाया है ।।
ना आँत ना दाँत मुकम्मल हैं, गोश्त खाने के लिये ।
फिर भी बड़े पतीले में , लज्ज़त से पकाया है ।।
नादाँ नहीं बस बनता है , अकल होकर के भी नादाँ ।
पहचान है उसको गैरों की , अपना बच्चा नहीं खाया है ।।
मजहब की दलीलें देता है , भगवान की बातें करता है ।
खुद तो मालिक का बन्दा है , बकरा किसने बनाया है !!
भूलता नहीं नहाना , छूकर कभी भी मुर्दे को ।
बस भूल जाता है मगर , कितने जिन्दों को खाया है ।।
"प्रवेश "
बेपरवाह है दर्द से , अपना नहीं गँवाया है ।
बेदर्दी ने शौक से , बेजुबाँ काटकर खाया है ।।
ना आँत ना दाँत मुकम्मल हैं, गोश्त खाने के लिये ।
फिर भी बड़े पतीले में , लज्ज़त से पकाया है ।।
नादाँ नहीं बस बनता है , अकल होकर के भी नादाँ ।
पहचान है उसको गैरों की , अपना बच्चा नहीं खाया है ।।
मजहब की दलीलें देता है , भगवान की बातें करता है ।
खुद तो मालिक का बन्दा है , बकरा किसने बनाया है !!
भूलता नहीं नहाना , छूकर कभी भी मुर्दे को ।
बस भूल जाता है मगर , कितने जिन्दों को खाया है ।।
"प्रवेश "
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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