कुछ उम्मीद बँधी है पहाड़ों को
अपनों के लौट आने की
जो मुँह फेर गये थे
शहर की चकाचौंध से खिंचकर
क्योंकि अब धुंध से धुँधली पड़ रही है
शहर की चमक।
भवनों और वाहनों के जंगल में
हर साँस भारी होती जा रही है
ज़ान के लाले पड़ने को हैं
ज़हर घुला है दोनों में
हवा और राजअनीति
हर शख्स पर भारी है
हर श्वाँस पर भारी है।
बड़े भोले हैं पहाड़
नहीं जानते कि जो छोड़ चुके हैं
मरकर भी नहीं लौटेंगे
ताजी हवा, शीतल पानी
गुनगुनी धूप और मीठी बोली से इतर
पेट भरने को लगती है दो वक्त की रोटी
पहाड़ी भात भी खाते हैं
जो पहाड़ नहीं दे पायेंगे
शहर दे रहे हैं
ऐसा सोचते हैं शहरी पहाड़ी।
भला !! क्यों लौटेंगे !! ~ प्रवेश ~
अपनों के लौट आने की
जो मुँह फेर गये थे
शहर की चकाचौंध से खिंचकर
क्योंकि अब धुंध से धुँधली पड़ रही है
शहर की चमक।
भवनों और वाहनों के जंगल में
हर साँस भारी होती जा रही है
ज़ान के लाले पड़ने को हैं
ज़हर घुला है दोनों में
हवा और राजअनीति
हर शख्स पर भारी है
हर श्वाँस पर भारी है।
बड़े भोले हैं पहाड़
नहीं जानते कि जो छोड़ चुके हैं
मरकर भी नहीं लौटेंगे
ताजी हवा, शीतल पानी
गुनगुनी धूप और मीठी बोली से इतर
पेट भरने को लगती है दो वक्त की रोटी
पहाड़ी भात भी खाते हैं
जो पहाड़ नहीं दे पायेंगे
शहर दे रहे हैं
ऐसा सोचते हैं शहरी पहाड़ी।
भला !! क्यों लौटेंगे !! ~ प्रवेश ~
बहुत सुन्दर।
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