Sunday, August 10, 2025

हे मानव ! मैं हूँ प्रकृति

हे मानव ! मैं हूँ प्रकृति 

तू भूल गया मेरी प्रवृत्ति 

तुझे कुछ याद दिला दूँ मैं 

तेरा स्थान बता दूँ मैं। 

तू पर्वत - जंगल काट - काट 

बनाने चला सड़कें सपाट 

नदी के मुहाने मोड़ चला 

तू स्वयं विनाश की ओर चला। 

कर दी पारिस्थितिकी छिन्न - भिन्न 

तू ही उत्तम, सब और निम्न !

तेरी स्वार्थ-नीति सर्वत्र बही 

आखिर ! कितना सहेगी मही !!

तूने बहुविधि बहु पाठ पढ़े 

समतल में ऊँचे भवन गढ़े 

खेतों में सघन नगर उपजे 

बरसें तो मेघ किधर बरसें ?

तू आगे बढ़ किन्तु ये स्मरण रहे 

जिस क्षण तक रवि में किरण रहे 

मैं पलटवार कर सकती हूँ 

पुनः निज स्वरूप धर सकती हूँ। 

जहाँ जंगल थे, जंगल फिर होंगे

न रुका, अमंगल फिर होंगे 

जहाँ बहती थी नदी, बहेगी वहीं 

तेरी दासी नहीं रहेगी मही। ~ प्रवेश ~