शब्दों को अब समझ न रही
अच्छे- बुरे की परख न रही
सार्वजनिक मंच क्या मिला
कि भूल गए खुद को ही
न हलन्त न विसर्ग की परवाह
न छोटी - बड़ी मात्रा की फ़िक्र
न मेल - मिलाप का तरीका
न भावों की कद्र
अपना स्वरुप तक तो याद नहीं
फिर भी लज्जाहीन उछल - कूद
नहीं जानते कि इनकी नासमझी
नष्ट कर देती है नवांकुरित कवियों को
लेखकों को गर्भ में ही मार देती है । ~ प्रवेश ~
अच्छे- बुरे की परख न रही
सार्वजनिक मंच क्या मिला
कि भूल गए खुद को ही
न हलन्त न विसर्ग की परवाह
न छोटी - बड़ी मात्रा की फ़िक्र
न मेल - मिलाप का तरीका
न भावों की कद्र
अपना स्वरुप तक तो याद नहीं
फिर भी लज्जाहीन उछल - कूद
नहीं जानते कि इनकी नासमझी
नष्ट कर देती है नवांकुरित कवियों को
लेखकों को गर्भ में ही मार देती है । ~ प्रवेश ~
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-08-2016) को "शब्द उद्दण्ड हो गए" (चर्चा अंक-2439) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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भाई-बहन के पवित्र प्रें के प्रतीक
रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय। रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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