Friday, May 3, 2013

शायद ! कविता तैंयार है ।

एक कड़ाही  है , एक थाली है ।
रसोई अभी संभाली है ।
जुगाड़ भी है आँच का ।
मौका है कुछ जाँच का ।

कुछ शब्द रखे हैं छाँटकर ।
स्वादानुसार बाँटकर ।
अलग - अलग मसाले हैं ।
सबके स्वाद निराले हैं ।

कोई तेज है , कोई फीका है ।
अपना - अपना तरीका है ।
ये सच है , थोड़ा तीखा है ।
मीठा बनना नहीं सीखा है ।

तैंयार सामग्री सारी  है ।
कविता बनने की तैंयारी है ।
ट्रेनिंग अभी अधूरी है ।
सावधानी जरूरी है ।

प्यार की दे दी आँच नरम ।
तेल लक्ष्य का हुआ गरम ।
अब तड़का भावों का डाला ।
फिर मिला दिया है  मसाला ।

शुरू हुई नयी पारी ।
डाले शब्द बारी - बारी ।
अब पानी डाला नापकर ।
पकने को छोड़ा ढाँपकर । (ढाँपकर = ढककर )

धीमी आँच पर पकाई ।
चम्मच से थोड़ी हिलाई ।
एक खुशबू आर - पार है ।
शायद ! कविता तैंयार है ।
                          " प्रवेश "









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