Tuesday, December 31, 2013

मेरी माँ पढ़ लेती है मुझे

तुमने बाँचा है मुझे
मुझसे अलग होने पर ,
कभी मुझे 
मुझमें ही नहीं पढ़ पाये हो ,
तुमने इंतजार किया है 
मेरे छपने का
लिखे जाने का ,
पढ़े - लिखे हो 
लिखा पढ़ सकते हो 
वो भी उसी भाषा में 
जो तुमने पढ़ी है
पढ़ने के लिये |
मेरी माँ पढ़ लेती है मुझे
टेलीफोन पर ही ,
मेरा मौन भी
सही - सही उच्चरित कर लेती है ,
साक्षरों में शामिल नहीं है फिर भी,
लिखा जो नहीं पढ़ पाती | ~ प्रवेश ~

Friday, December 27, 2013

अरी ओ धूप !

अरी ओ धूप !
इतनी कड़ाके की ठंड से 
तुझमें अकड़  क्यों नहीं आती  ?
तू सीधी ही पड़ रही है  
आज भी जेठ की तरह |
थोड़ा बांकपन ला 
थोड़ी सी टेढ़ी हो जा 
और मुड़कर पहुँच जा 
मेरे द़फ्तर के खोमचे में |
मैं इतना ताम - झाम लेकर 
बाहर नहीं बैठ सकता |  ~प्रवेश ~

Wednesday, December 11, 2013

रेलगाड़ी का जनरल डिब्बा (भाग - 1 )

पूरी तरह विरामावस्था में
नहीं आयी है रेल
और शुरू हो गयी है
चढ़ने वालों की रेलमपेल |

जल्दी में नहीं हैं
उतरने वाले,
उन्हें खयाल है अपने पैरों का
प्रेम है अपने दाँतों से
चढ़ने वाले जोश में हैं
बेखबर हैं इन सब बातों से |

रुक गयी है रेल
रुक गया है जनरल कोच
इस कोच के दरवाजे पर
बड़ी अजीब है सोच |

चढ़ने - उतरने वालों का
हो गया है सामना
अन्दर जाकर सीट मिले
चढ़ने वालों की कामना |

भाई मेरे ! जब अन्दर वाली
भीड़ बाहर आ जायेगी
पाँव रखने लायक जगह तो
ख़ुद - ब - ख़ुद हो जायेगी |
                                         ~ प्रवेश ~

Wednesday, November 20, 2013

परछाई एक मिथ्या है

रात में
मैं सड़क पर चल रहा हूँ |
रास्ता दिखाने के लिये
नियत दूरी पर
पीली रोशनी उगलते
बिजली के खम्भे गड़े हैं |
रोशनी के पास
और रोशनी से दूर
जाता हुआ हर कदम
मेरा कद बदल रहा है |
परछाई एक मिथ्या है
एक भ्रम है
और प्रतीक है अज्ञान का,
जो बढ़ती जाती है
प्रकाश पुंज से दूर होने पर
और समाप्त हो जाती है
अगले खम्भे के नीचे |
आप परछाई मिटाने के लिये
बिजली गुल करने का
सुझाव भी दे सकते हैं |
आप तो आप हैं |
मैं दूरी समाप्त करना चाहूँगा
बिजली के खंभों के बीच की | ~ प्रवेश ~

Friday, November 1, 2013

कौन सा अंधियारा मिटा रहे हो ?

माटी के दीपक जलाये जा रहे हो |
कौन सा अंधियारा मिटा रहे हो ?
रात काली ही रहेगी हर अमावस |
एक भ्रम सदियों से पाले जा रहे हो |

मन के दीपों को भी रौशन कर चलो अब |
अपने भीतर के भी तम को हर चलो अब |
आत्मा की शुद्धि भी हो लक्ष्य जिसका
डगर पर आशा भरे डग भर चलो अब | ~ प्रवेश ~

Monday, October 21, 2013

करवाचौथ का व्रत

दिन भर की भूखी - प्यासी पत्नी

पति के इंतज़ार में

बाट जोहती 

कि कब आये

और व्रत तोड़ दे |

पति लौटा है बदहवाश


नशे में धुत्त 


पार्टी मनाकर


अपने लफंडर दोस्तों के साथ


और लात - घूँसों से


तोड़ दिया है व्रत,


करवाचौथ का व्रत | ~
प्रवेश ~

Friday, October 11, 2013

Friday, October 4, 2013

क्या बदल जायेगी सूरत बेवजह चीत्कार से ?
सूरत बदलनी है तो बदलो वोट के हथियार से ।।

बाहर निकालो आस्तीनों में छिपे जो अब तलक ।
साँप कभी पालतू बनते नहीं पुचकार से ॥

बिक जाते हो रंग - बिरंगे कागजों और पानी में ।
अनजान हो तकदीर के निर्माण के अधिकार से ॥

मैं किसी दल के किसी नेता का सम्बन्धी नहीं ।
जागरूक करना चाहता हूँ लेखनी की धार से ॥

फिर से फेंके जायेंगे टुकड़े लुभाने के लिये ।
अभी - अभी पता चला है आज के अखबार से ॥

रहनुमा जो भी चुनो , होशोहवास में चुनो ।
बहस करते हो बहुत मामूली दुकानदार से ॥ ~ प्रवेश ~ 

सिर तुम्हारा - अक्ल तुम्हारी

सिर  तुम्हारा
अक्ल तुम्हारी
मंदिर तुम्हारा  
भगवान तुम्हारा 
मस्जिद तुम्हारी 
खुदा तुम्हारा
मगर अफ़सोस !!!
फिर भी सब कुछ 
माइक - माला वालों के पास 
गिरवी रखे बैठे हो ।  ~ प्रवेश ~ 

Monday, September 2, 2013

स्वतंत्र मतदाता

कौन बनेगा प्रधानमंत्री !
मुझे फर्क नहीं पड़ता |
राजनीति विश्लेषकों के
कभी तर्क नहीं पढ़ता |

किसी भी दल का नेता आये
लेकर हाथ में पर्चा |
बड़े गौर से सुनता हूँ
अपने उत्थान की चर्चा |

हर दल की रैली में
खूब लगाता नारे |
बुरा नहीं कहता हूँ किसी को
एक से दल हैं सारे |

कोई कम्बल, कोई बैसाखी
कोई बाँटे रजाई |
कोई आँखों का शिविर लगाये
मुफ्त मिले दवाई |

कोई पव्वा, कोई बोतल
कोई बाँटे नोट |
जिसका तोहफा सबसे महँगा
उसी का मेरा वोट |

नियत समय पर सदा
मतदान केंद्र पहुँच जाता हूँ |
प्रधानमंत्री चुनने वाला
मैं स्वतंत्र मतदाता हूँ | ~ प्रवेश ~

Saturday, August 31, 2013

और भी कई काम हैं मुझे

ऑफिस जाना
काम करना
घर लौटना
बाजार जाना
राशन लाना
सब्जी लाना
फिर घर जाकर
पानी भरना
दूध लाना
खाना बनाना
किताबें भी पढता हूँ मैं
खाना खाना
और सो जाना
दुनियाभर के और भी
कई काम हैं मुझे
तुझे याद करने के सिवाय ,
इसलिये
अब तुझे
भूलना ही छोड़ दिया ।
                     " प्रवेश "

Saturday, August 24, 2013

बेशक रहो शालीन, पर हुंकार भी रखो ।
लबों पर हँसी , कमर में कटार भी रखो ॥

इंसान हो तो प्यार से पुचकारना भला ।
हैवान हो तो जेहन में दुत्कार भी रखो ॥

बनना - सँवरना , रूप पर इतराना कब तलक ।
कोमलता रखो पर चेहरा रौबदार भी रखो ॥

अंजाम जो भी हो, अस्मत से बड़ा नहीं ।
अब तो लड़ाई आर की या पार की रखो ॥ ~ प्रवेश ~




Friday, August 16, 2013

भीमिया की लुगाई

आजाद है भीमिया की लुगाई
उसे आजादी है
अपने घर में खुलकर हँसने की
अपना मुखड़ा दिखाने की
घुटनों तक घूंघट नहीं करना उसे |

उसे आजादी है
भीमिया को गलत बात पर टोकने की
नसीहत देने की
अपनी राय रखने की,
वो बस भीमिया की लुगाई नहीं
खुद का अस्तित्व रखने वाली
एक औरत भी है |

उसे आजादी है
रास्ता पूछने वाले को रास्ता बताने की
चाहे वो मर्द हो या औरत
उस पर बंदिश नहीं है
अजनबी से बात करने की |

वो खुश है अपनी आजादी से
उसे फख्र है
भीमिया की लुगाई होने पर,
मजदूर है भीमिया
और अनपढ़ भी || " प्रवेश "

Monday, August 12, 2013

क्यों इस तरह से बवाल कीजिये

क्यों इस तरह से बवाल कीजिये 
अब खुद ही अपनी कोई ढाल कीजिये ।

बेटे तो  तुम्हारे पालने तक ही थे 
अम्मा ! अब खुद अपनी देखभाल कीजिये । 

आता नहीं अगर कोई जवाब उधर से 
तो फिर क्यों सवाल पे सवाल कीजिये !

इससे पहले कि जंग खा जाये
तलवार का सही इस्तेमाल कीजिये । 

हौंसला न कीजिये जवानी की तरह 
तनिक उमर का भी तो खयाल कीजिये । 
                                             " प्रवेश " 

भारी होती हैं बेटियाँ

बहुत भारी होती हैं बेटियाँ
बेटा गोद में होता है
कभी कंधे पर भी
सिर पर भी चढ़ जाता है
और बेटी को --
अगर नसीबों वाली है तो,
चलना होता है
उँगली पकड़कर,
गोद में नहीं उठाना है उसे
क्योंकि भारी होती हैं बेटियाँ ।

नौकरी ढूँढ रहा है बेटा
कोशिश तो कर ही रहा है
और कोशिशों में बिता चुका है
पैंतीस बसंत,
फिर भी बोझ नहीं है बेटा ,
बीस की हो गयी है बेटी
उसकी उम्र में
माँ बन गयी थी माँ -- दो बच्चों की,
कोई रिश्ता नहीं आया अब तक
और गली में उसकी उम्र की
कोई है भी तो नहीं,
बोझ बन गयी है बेटी ।

बहुत भारी होती हैं बेटियाँ !! " प्रवेश "
                           

कोशिशें

कोशिशें
अक्सर कामयाब हो जाती होंगी ,
लेकिन कोशिश करने वाले
कामयाब हो ही जाने की
कोशिश नहीं करते ।

कहीं ना कहीं
नाकामयाबी  के लिये
जगह छोड़ देते हैं
कोशिश करने वाले
और सफाई देने के लिये
गुंजाइश भी,
"कोशिश तो की थी "।

जो कामयाबी को निशाना बनाते हैं
उन्हें पक्षी , पेड़, पत्ते, सहचर
और आसमान नहीं दिखाई देता,
उन्हें दिखाई देती है
तो केवल पक्षी की आँख ।

साधक द्वारा
साधन से
साध्य की प्राप्ति ।  ~  प्रवेश ~


Tuesday, July 23, 2013

आज नहीं घर में दाना

सुन रे पंछी - तू कल आना
आज नहीं घर में दाना ।

खाली चावल की थाली है
गेहूँ का पीपा खाली है ।
मैंने भी नहीं खाया खाना
आज नहीं घर में दाना ।

हाँ , मैं ही अन्न उगाता हूँ
दुनिया को खिलाता हूँ ।
मैं भूमिपुत्र, सबने माना
पर आज नहीं घर में दाना ।

मैं हूँ किसान, मेरे खेत नहीं
मिट्टी भी नहीं और रेत नहीं ।
मैं बिना हृदय का दीवाना
आज नहीं घर में दाना ।

हाथ नहीं फैलाता हूँ
भीख माँग नहीं खाता हूँ ।
मुझे आत्महन्ता ही कहलाना
आज नहीं घर में दाना ।
                       " प्रवेश "

Monday, July 8, 2013

मोक्ष नहीं है कुर्सी

भूल कर रहे हो
कुर्सी को मोक्ष समझ रहे हो ।

मोक्ष नहीं है कुर्सी ,
एक दोराहा है ।

एक रास्ता स्वर्ग को
और दूसरा नरक को जाता है ।
एक पुण्य की ओर
और दूसरा पाप की ओर  ले जाता है ।

तुम कुर्सी पर विराजमान हो ,
फैसला तुम्हारा ,
नरक को प्रस्थान या स्वर्ग को ?

कुर्सी ने तुम्हें जो शक्ति दी है
उससे तुम चाहो तो
आशीर्वाद और दुआएँ अर्जित कर लो
और चाहो तो श्राप और पाप ।

(सुना है कि कर्मों का फल
इसी जन्म में भुगतना होता है ,
 फिर भी - कल किसने देखा !!)
                                                " प्रवेश "



Tuesday, July 2, 2013

दिल में कुछ अरमान बचाकर रख लो ।

दिल में कुछ अरमान बचाकर रख लो ।
मुट्ठी में तूफ़ान बचाकर रख लो ॥

भूख कहीं सब चावल- चावल ना कर दे ।
दो - एक मुट्ठी धान बचाकर रख लो ॥

माना कि आसानी से बिक जाता है ।
थोड़ा सा ईमान बचाकर रख लो ॥

मुझसे मत पूछो महफूज कहाँ होगी ।
रख पाओ तो जान बचाकर रख लो ॥

दर्द दूसरे  का भी तो महसूस करो ।
पुतले में इंसान बचाकर रख लो ॥

छोड़ो दकियानूस दलीलें मजहब की ।
प्यारे ! हिन्दुस्तान बचाकर रख लो ॥
                                     " प्रवेश "

Wednesday, June 19, 2013

मेघा रे ! तुम क्यों बरसे ?

मेघा रे ! तुम क्यों बरसे ?
मंदिर - मस्जिद कुछ न छोड़ा
सब बहा ले गये शहर से ।

क्या बड़ी - क्या छोटी
तोड़ डाली पर्वत की चोटी
भारी - भरकम पेड़ न छोड़े
कोई बचा न तुम्हारे कहर से ।

बह गये युवा - बूढ़े और बच्चे
तूने ना देखे झूठे - सच्चे
जो रह गये वो थर्र थर्र काँपे
तेरे प्रकोप के डर से ।

गलियाँ बह गयी, गाँव बह गये
उखड़ गये जब पाँव , बह गये
कोशिश का मौका भी न दिया
निकल भी न पाये घर से ।

मवेशी क्या इन्सान न छोड़े
तूने तो भगवान न छोड़े
छोड़े तो शमशान ही छोड़े
सब ख़त्म कर दिया जहर से ।

भवन ढहे ज्यों ताश के पत्ते
कुछ भी नहीं बचा अलबत्ते
तुम  से तो सारे ही हारे
ताज उठा ले गये सर से ।

जिम्मेदार नहीं हो तुम ही
गुनहगार बराबर हम भी
हरे - भरे जंगल उजाड़कर
पहाड़ बना दिये जर्जर से ।

बहती ना तो और क्या करती
चिरी - फाड़ी नंगी धरती
तुम्हें कोसना मज़बूरी है
आफत आई अम्बर से ।
                            " प्रवेश "

Monday, May 13, 2013

खाकी से डर लगता है

नदी किनारे घर है
पर तैराकी से  डर लगता है । 

मैखानों का शौक भी है 
और साकी से डर लगता है । 

सिर्फ तुम्ही पर ऐतबार है 
बाकी से डर लगता है । 

शौक नहीं  परदे का 
तांका - झाँकी से डर लगता है । 

जाने दुनिया क्या सोचे !
बेबाकी से डर लगता है । 

दोस्त बताती है खुद को 
पर खाकी से डर लगता है । 
                                  " प्रवेश " 


Friday, May 3, 2013

कोयल अब इस उजाड़ में बोलती नहीं ।

कोयल अब इस उजाड़ में बोलती नहीं ।
मिसरी सी बोली कानों में घोलती नहीं ।।

नदी के बीच में पत्थर प्यासे पड़े हैं ।
पानी नहीं तो कश्ती कोई डोलती नहीं ।।

उसको कहा तू लड़की है , छोड़ बचपना ।
घर पहुँचने पर मुन्नी जेबें टटोलती नहीं ।।

सड़क पर देखा था कत्लेआम सभी ने ।
ये भीड़ निरी गूँगी है , जुबाँ खोलती नहीं ।।

हमदर्द नहीं है , सरकार बनी बैठी है ।
गरीब को इंसान  सा तोलती नहीं ।।
                                          " प्रवेश "

शायद ! कविता तैंयार है ।

एक कड़ाही  है , एक थाली है ।
रसोई अभी संभाली है ।
जुगाड़ भी है आँच का ।
मौका है कुछ जाँच का ।

कुछ शब्द रखे हैं छाँटकर ।
स्वादानुसार बाँटकर ।
अलग - अलग मसाले हैं ।
सबके स्वाद निराले हैं ।

कोई तेज है , कोई फीका है ।
अपना - अपना तरीका है ।
ये सच है , थोड़ा तीखा है ।
मीठा बनना नहीं सीखा है ।

तैंयार सामग्री सारी  है ।
कविता बनने की तैंयारी है ।
ट्रेनिंग अभी अधूरी है ।
सावधानी जरूरी है ।

प्यार की दे दी आँच नरम ।
तेल लक्ष्य का हुआ गरम ।
अब तड़का भावों का डाला ।
फिर मिला दिया है  मसाला ।

शुरू हुई नयी पारी ।
डाले शब्द बारी - बारी ।
अब पानी डाला नापकर ।
पकने को छोड़ा ढाँपकर । (ढाँपकर = ढककर )

धीमी आँच पर पकाई ।
चम्मच से थोड़ी हिलाई ।
एक खुशबू आर - पार है ।
शायद ! कविता तैंयार है ।
                          " प्रवेश "









Thursday, May 2, 2013

तुमसे यारी हुई

तुमसे यारी हुई
बहुत उधारी हुई ।

जाने कितनों से पंगा लिया
कितनों से मारामारी हुई ।

बहुतों को सीने में दर्द हुआ
बहुतों को दिल की बीमारी हुई ।

गली - गली लेनदार हो गये
पहले न इतनी देनदारी हुई ।

आसमां पर तुम्हारे नखरे गये
जमीं पर मेरी जमींदारी हुई ।
                                   " प्रवेश "

Friday, April 12, 2013

त्रिवेणी - एक प्रयास

एक झलक देखा था कभी
आज भी याद है वो सूरत जो अपनी सी लगी
सफ़ेद कमीज पर पक्के रंग की रगड़ की तरह ।। 1

जंगल में आग लगी है बहार आने पर
पेड़ों ने नयी कोपलें पहनी हैं मगर
खिजां में गिराये हुए पत्ते अभी सड़े ही नहीं ।। 2

फिकर न कर कि सर पे चाँदी है
नूर चेहरे पे बरक़रार है या ना
किसको फुर्सत है , खुद को छोड़ तेरी बात करे ।। 3

जल्दबाजी ना करो
थोड़ी सी हवा लगने दो
रिश्ते भी गर्म हैं , चूल्हे से अभी उतरे हैं ।। 4

एक चिता फिर तैयार है
वो आटा गूँधकर बैठे हैं
सियासत जमीर मार देती है | | 5

उड़ के जाने किधर से आया था
मेरी छत पर बरस गया कुछ पल
कभी भटके हुये खुशी दे जाते हैं | | 6

दूर जिस ठौर तक जाती है नज़र
रेत ही रेत बिछी है देखो
इसी जगह पर समंदर था कभी ॥ 7

सब अपनी जगह सही हैं मगर
जगह बदलते ही कुछ भी सही नहीं रहता
पेट में भूख , ख़्वाब आँखों में रहे ॥ 8

बड़ी गर्मी चढ़ी है सूरज को
साल भरपूर जवानी पर है
उम्र ढलते ही कंपकपायेगा ॥ 9

न पंखा , न कूलर , न ए सी को आराम है
बिजली जाते ही जैसे प्राण सूख जाते हैं
फुटपाथ पर है थोड़ी सी गर्मी बढ़ी हुई ॥ 10

मौत उठा ले जाती है चील बनकर
हर बार साँप बनकर नये बिल में घुस जाती है
रूह वाकई बड़ी ढीठ , बड़ी जिद्दी है ॥ 11

लम्हे थामे थे बारिशों के लिये
बारिशें आयीं और लौट गयी
तुम न आये तो फिर बरसने लगा ॥ 12

जिंदगी खेल धूप - छाओं का
मेरे हिस्से में धूप ही आयी
तुम पे छाया रहा हमेशा ही ॥ 13

तुझको पाने, कँटीली राहों पर
नंगे पैरों सफ़र किया मीलों ,
घर को लौटा तो हाथ खाली थे ॥ 14

आसमां पर है , हवा का संग है
कल तलक पैरों तले धूल हुआ करता था ,
तुम भी संगत बदल के देखो तो ॥ 15

तजुरबों की एक किताब है जिंदगी
हर पन्ने पर एक तजुरबा लिखा है
महज पन्ने उलटने से दिन नहीं उलटते || 16

वक़्त रहते सही रास्ता मिल जाये
तबाही , खुशहाली में बदल जाये
पानी और जवानी का आना शुभ हुआ || 17

चतुर योद्धा है मौत 
लड़ती रहती है जिंदगी 
आखिर मौत जीत जाती है ॥ 18 


चाँद छोटा सा बड़ा प्यारा था 
चाँद बढ़कर ही दागदार हुआ 
बचपन जवानी से कहीं बेहतर है ॥ 19 


चाँद छोटा सा बड़ा प्यारा था 
चाँद बढ़कर ही दागदार हुआ 
बेदाग होकर बढ़ना भी आसान नहीं ॥ 20 


बदल - बदल जगह मुंडेरों पर 
जगता रहा है चाँद शब भर 

न जाने चोर है या चौकीदार ! 21!
                                               " प्रवेश "




Tuesday, April 9, 2013

पानी से खफा सफरी क्यों है !

ये अफरा - तफरी क्यों है !
पानी से खफा सफरी क्यों है !!

कहने और दिखाने को गाँव बहुत प्यारा है ।
ये मिजाज मगर शहरी क्यों है !!

आजादी की रिटायरमेंट की उम्र गयी ।
ये ख़ुशी अब भी सुनहरी क्यों है !!

जनता चीखती है और खामोश हो जाती है ।
ये सरकार निरी बहरी क्यों है !!

दो - दो कदम तो दोनों ही चले थे ।
ये खाई मगर इतनी गहरी क्यों है !!

रूह तो उड़ने को तैंयार है हरदम ।
पुतले में साँस आखिर ठहरी क्यों है !!
                                    " प्रवेश "

Saturday, April 6, 2013

रफ़्तार का नशा

नशा
केवल शराब , चरस ,
गांजा , अफीम
या मोहब्बत का ही नहीं होता ।
अभी - अभी
रफ़्तार के नशे में
जो कीचड़ उछालकर गया है
मेरी तरफ ,
मेरी साईकिल की सीट
उसकी कार से ऊंची है ।
                          " प्रवेश "

Saturday, March 30, 2013

गाँव से चला जब शहर की तरफ

गाँव से चला जब शहर की तरफ ।
मुड़ - मुड़ देखता रहा घर की तरफ ।।

रुँधा गला पिता का , माँ की नाम आँखें ।
मुझे खींच रही थी मेरे घर की तरफ ।।

जब तक गाड़ी नजर से ओझल न हो गयी ।
बहन हाथ हिलाती रही डगर की तरफ ।।

एक पुरानी सी जो तस्वीर लेकर चला था ।
टाँग दी दीवार पर सर की तरफ ।।

तुझे याद रहा मैं , तुझे भूल गया मैं ।
मैं बढ़ रहा हूँ किस अनजान सफ़र की तरफ ।।
                                            " प्रवेश "

Thursday, March 28, 2013

हैरान ना हों

अचम्भित ना होवें ,
यदि
आपको काट ले कभी
या पीछा करे
आपकी गाड़ी का
बड़े दाँतों और
लम्बी जीभ वाला
कोई भेड़ का पिल्ला ,
या
कहीं रास्ते में
मिल जाय कोई
झुण्ड से बिछड़ा हुआ
कुतिया का मेमना,
तो कतई भी
हैरान ना हों ,
क्योंकि
ये कोई बड़ी बात नहीं
इस रासायनिक युग में ।
                         " प्रवेश "

Friday, March 22, 2013

बदजबान

एक काले धागे में 
पिरोये हुये 
चंद छोटे काले दानों 
और बालों को पाटती हुई 
लकीर में काढी गयी 
एक रंग की रंगोली के बदले, 
चुपचाप और स्तब्ध 
सारी जिंदगी 
मेहनत -  मजदूरी करके ,
अपना पेट काटकर ,
पेट भरती रही 
उसकी अय्याशियों का ।
आज मुँह खोला 
और जमाने ने उसको 
बदजबान कह दिया ।
                        " प्रवेश "




Wednesday, March 20, 2013

जिंदगी जो मुझे देती है, सब गवारा है!

धूप है, छाँव है या दर्द का अँधियारा है ।
जिंदगी जो भी मुझे देती है सब गवारा है ।

मुझे लहरों से नहीं है शिकायत कोई ,
साहिल भी मुझे देखो बहुत ही प्यारा है ।

जिंदगी जो भी बनाया है मुजस्सम तूने ,
मैंने खुद को हर एक अक्श में उतारा है ।

बेवफा निकलेगी तू , मैं जानता हूँ ,
वफ़ा जब तक न आ जाये , तेरा सहारा है ।

तेरा - मेरा दोनों का है , ख़ाक वजूद इक - दूजे बिन ,
सागर और हवा के जैसा ये सम्बन्ध हमारा है ।


                                                     " प्रवेश "
आभार

Wednesday, March 6, 2013

कौन - कब - कहाँ - कुछ कह रहा है !

कौन - कब - कहाँ - कुछ कह रहा है !

कौन - कब - कहाँ - कुछ कह रहा है !

ह्रदय में कुछ भूसे सा जल रहा है ,
कोई फूल को पैरों तले कुचल रहा है ,
कोई तटस्थ हो देख रहा है शालीन होकर ,
कोई भींचकर मुट्ठी खुशियाँ मसल रहा है ।
कोई आँसुओं से तन -मन भिगोकर 
मौन है , स्तम्भित खड़ा सब सह रहा है ।

किसी को दल की, किसी को पद की चिंता,
राष्ट्र दूजा , सबसे पहले कद की चिंता ,
जात ऊपर , इंसानियत औंधे पड़ी है ,
किसी को मंदिर और मस्जिद की चिंता ।
प्रेम का जो घर बना था नदी तीरे 
द्वेष की प्रचंड बाढ़ से ढह रहा है ।

बदहाल है भूपुत्र , बेबस तप रहा है ,
धूप - बारिश - लू के थपेड़े खप रहा है ,
आस से नजरें गड़ाये है वो जिस पर 
वो तो बस वादों की माला जप रहा है ।
धूप में निकला नहीं, क्या खबर उसको 
कैसे स्वेद से मिलकर लहू भी बह रहा है ।

कौन - कब - कहाँ - कुछ कह रहा है !
                                                    " प्रवेश "

Saturday, March 2, 2013

काम प्यारा है

सूँघे भी ना
सूखी घास को
मगर घुटने टेक दे
जुआ देखकर
और धौंस जमाये
अधखिले सींगों की,
तो नहीं पालता
कोई भी किसान
ऐसे धरती के बोझ को,
और खुशामद नहीं करता
बिना दूध वाली
नखराली गाय की ,
दूध देने वाली
गाय को ही
लात मारने का हक है ।
                          " प्रवेश "

Wednesday, February 27, 2013

सम्पन्नता की निशानी

एक बेल
जो चढ़ नहीं सकती
बिना सहारे के
बरामदे से छत तक ,
एक बोतल में
जिंदगी गुजार देती है
बिना मिटटी के ,
दरवाजे पर बँधे
विदेशी नस्ल के
कुत्ते के साथ
जिसका मुँह फटा है
कान के पास तक,
आज मात देकर
चार बीघा जमीन में
लहलहाती फसल को
और बाड़े में बँधे
बैलों , गायों और
बकरियों को,
सम्पन्नता की
निशानी बनी बैठी है ।
                         " प्रवेश "



Wednesday, February 20, 2013

कृतघ्न परजीवी

कब तक चिपके रहोगे
भैंस की पीठ पर
जूँ की तरह !
तुम्हारा अस्तित्व है
इस चौपायी सीट पर
धूँ की तरह ।
तुम यहीं उपजते हो
भैंस की पीठ पर ,
यहीं मरते हो
यहीं जीते हो ।
फिर भी ग़जब करते हो
जिसने आसरा दिया
उसी का लहू पीते हो ।
एक भ्रम में हो तुम
कि लहू पीकर यशस्वी हो ,
चिरंजीवी हो ।
अगर सुन सको तो सुनो
तुम दुनिया की नजरों में
महज एक कृतघ्न
परजीवी हो ।
                          " प्रवेश "

Saturday, February 16, 2013

दिखावा क्यों ?

जश्न भी है
और प्रश्न भी ,
कर्ज से दबकर
दिखावा क्यों ?
तथाकथित बिरादरी
और चटोरे समाज की
पर्दा पड़ी आँखों के सामने
अनदेखी नाक बचाने के लिये
ताउम्र का एहसान
और बच्चों के लिये
देनदारी से भरी विरासत
दिखावटी जश्न के बीच
जेहन में रहती तो है ,
फिर दिखावा क्यों ?
                       " प्रवेश "

Saturday, February 9, 2013

छोरा हुआ है

छोरा हुआ है
एक ओर गला फाड़ - फाड़कर
महिलायें मंगल गीत गायेंगी,
और नये मेहमान के आने की
थाली बजाकर
खबर कर दी जायेगी
पूरे गाँव को ।
और दूसरी ओर
बोतलें खुलेंगी
पार्टी होगी
नामकरण तक लगातार ,
और दो बकरे कटेंगे
नामकरण के अगले दिन
पूरा गाँव दावत लेगा ।
ठीक दो साल पहले का
सन्नाटा अब तक याद है
जब मुँह लटकाकर
दादी ने कहा था
"छोरी हुई है ।"
                       " प्रवेश "



Friday, February 8, 2013

धर्म परिवर्तन

सींगों पर धार लगाकर
निकल पड़ी हैं शिकार पर  ,
शुद्ध शाकाहारी बकरियाँ
धर्म परिवर्तन पर उतारू हैं ।
जीवन तो जीवन है
वनस्पति हो या जीव ,
वृद्धि , संवेदना
या वंश प्रसार
दोनों ही तो करते हैं ।
तो बकरियाँ भी
अब मांसाहार करेंगी ,
शेर घास जो खाने लगे हैं ।

                                    " प्रवेश "

तुम जात पूछते हो !

जाने किस मुँह से तुम ये
गिरी हुई बात पूछते हो !
वो कुर्बान हुआ है देश पर ,
तुम जात पूछते हो !

वो लड़ा देश की आन की खातिर ,
भारत के स्वाभिमान के खातिर ,
तुझ जैसे नादान की खातिर ,
इन्सान है,  इन्सान की खातिर |
वो खेल गया है जान पर ,
तुम शह - मात पूछते हो !
वो कुर्बान हुआ है देश पर ,
तुम जात पूछते हो !

बचा गया डूबती लुटिया
रस्ता  देख रही है बिटिया ,
टूटी  - फूटी जर्जर कुटिया ,
बूढ़े बाबा , माता बुढ़िया |
विधवा वधू की आँखों से
बरसात पूछते हो !
वो कुर्बान हुआ है देश पर ,
तुम जात पूछते हो !

सरहद पर मरने वाला
ना हिन्दू - मुस्लिम - सिख - इसाई ,
भारत माँ का बेटा है वह
हर भारतवासी का भाई |
तुम चर्चा में रहने के लिये
घटिया बात पूछते हो !
वो कुर्बान हुआ है देश पर ,
तुम जात पूछते हो !

                    " प्रवेश "











Saturday, February 2, 2013

अफ़सोस ..तुम्हें दिल से हराना नहीं आता

सोचा तुमसे सीखेंगे दिल जीतने का हुनर ।
अफ़सोस ..तुम्हें दिल से हराना नहीं आता ।।

अरे .... तुम खुद को शहंशाह समझते हो ।
सितम ढाना नहीं आता , रहम खाना नहीं आता !!

अपाहिज हो मरेगा शागिर्द तुम्हारा ।
तुम्हें उँगली पकड़कर चलाना नहीं आता ।।

जंगल से आयी है , बेहया है हवा ।
इसे सलीके से पर्दा उठाना नहीं आता ।।
                                         " प्रवेश "

Thursday, January 31, 2013

उसके अगले दिन

आज भी हमेशा की तरह
मैं फिर से जल्दी जाग गया ।
सूरज के उगने से पहले 
एक मील तक भाग गया ।

घर पहुँचा तो रोज की तरह 
श्रीमती जी को झकझोरा ।
फिर मैं प्राणायाम के लिये 
बैठ गया बिछाकर बोरा ।

श्रीमती ने स्लोली - स्लोली 
टेस्टी ब्रेकफास्ट बनाया ।
फिर वही सब हुआ 
जो अब तक होता आया ।

फिर मैं अपने दाँत पहनकर 
नाश्ता करने बैठ गया ।
एक पराँठे का टुकड़ा 
दाँतों के बीच में ऐंठ गया ।

उसके बाद मैं बन ठन कर 
साईकिल पर सवार हो गया ।
श्रीमती को टा - टा कहकर 
दफ्तर को फरार हो गया ।

गेट पर पहुँचा तो मुझको 
चौकीदार ने रोका ना ।
और पहले की तरह मुझे 
उसने सलाम भी ठोका ना ।

दफ्तर में पहुँचा तो
सबसे दुआ - सलाम हुई ।
किसी से नमस्कार तो
किसी से राम - राम हुई ।

मेरे नाम की तख्ती गायब
मेरा न कोई ठौर था ।
दफ्तर में मेरी कुर्सी पर
आज कोई और था ।

उसके बाद दस्तखत करने
जब रजिस्टर खोला ।
सुबह से अब तक सब चुप थे
बस रजिस्टर ही बोला ।

देखो कविता के अंत में
कैसा सैटायर हो गया ।
रजिस्टर मुझसे बोला
मैं तो कल रिटायर हो गया ।
                                           " प्रवेश "







Tuesday, January 22, 2013

हाइकु - घूरे अगर

घूरे अगर 
बेशरम नजर 
आँख फोड़ दो ।
              " प्रवेश

Friday, January 11, 2013

कायदे बदलेंगे , दस्तूर बदलेगा

कायदे बदलेंगे , दस्तूर बदलेगा ।
तुम चाहोगे तो जरूर बदलेगा ।।

खोखले वादे नहीं , मजबूत इरादे करो ।
वो दुश्मन जो है नशे में चूर , बदलेगा ।।

देख लो जब झुण्ड भेड़ों के जाग जायेंगे ।
भेड़ियों का जमाना मगरूर बदलेगा ।।

" प्रवेश "

Friday, January 4, 2013

बेझिझक दे दो , सोचते क्यों हो !

बेझिझक दे दो , सोचते क्यों हो !
खरीदारों को दिल बेचते क्यों हो !!

क्यों हाथ - पाँव फूलते हैं , नजरें मिलाने से !
बहने दो पसीना , पोंछते क्यों हो !!


ये लेन - देन दिलों का वक़्त पर कर लेते ।
इस उम्र में बालों को नोंचते क्यों हो !!

जिस्म पर ही जोर चलता है उम्र का ।
बेवजह बुढ़ापे को कोसते क्यों हो !!
                                         " प्रवेश "

Thursday, January 3, 2013

किसी को आज की , किसी को कल की फिकर

किसी को आज की , किसी को कल की फिकर ।
किसी को झोंपड़ी , किसी को महल की फिकर ।।

किसी को चोरी पकड़े जाने का डर है ।
किसी को लिखी हुई ग़ज़ल की फिकर ।।

फूल बरसात ने झाड़े , कुछ फल ओलों ने ।
जो अकेला बचा है , उस फल की फिकर ।।

कोई फिकरमंद है अंजामे - मोहब्बत लेकर ।
किसी को इजहारे - पहल की फिकर ।।

किसी काम से मेरी बेटी घर से निकली है ।
घर लौटने तक सलामत सफ़र की फिकर ।।

छोटा बच्चा भी अब इस्कूल जाने लायक है ।
कागज , सियाही और हर पल की फिकर ।।

मद्धिम धूप की आगोश में दिन गुजर गया ।
शाम ढलते ही रजाई - कम्बल की फिकर ।।

यूं मेरी बात है घोषणापत्रों में - सभाओं में ।
असल फिकर तो हाथ और कमल की फिकर ।।

बड़े बेटे की शादी कर ली , नौकरी भी है ।
अभी बाकी है अतुल - विमल की फिकर ।।
                                                 " प्रवेश "


Wednesday, January 2, 2013

ग़म इतने कि खुशियों का खयाल नहीं आया ।

ग़म इतने कि खुशियों का खयाल नहीं आया ।
मुल्क में इस बार नया साल नहीं आया ।।

इस कदर दिखी गर्मजोशी जुल्म के खिलाफ ।
सर्दी में पहले कभी ऐसा उबाल नहीं आया ।।

लहू हर मजहब का इक रंग हो गया ।
जात - पात का कोई सवाल नहीं आया ।।

गुजरे साल में कई रुखसत हुए फ़नकार ।
वक़्त बेरहम को कोई मलाल नहीं आया ।।

साल भर ग़मों का ही दौर सा चला ।
खुशियों के बाजार में उछाल  नहीं आया ।।
                                         
                                               " प्रवेश "

जून में जनवरी की फरियाद करता है ।

जून में जनवरी की फरियाद करता है ।
वही शख्स जनवरी में जून को याद करता है ।।

ठिठुरता है कम्बल , ठिठुरती है रजाई भी ।
अंगीठी काँपती है , लकड़ियाँ बरबाद करता है ।।

कुहरा वहम में डाले है , महताब  के आफ़ताब !
सूरज को नमन भी दोपहर के बाद करता है ।।

कुछ निकल पड़े हैं काँपती देह को लेकर ।
पापी पेट है , हर मौसम से दो - दो हाथ करता है ।।

बड़े पैंसे वाले हैं, उन्हें सर्दी नहीं लगती ।
कहते हैं जमाना बेवजह बकवास करता है ।।

                                                    " प्रवेश "