Friday, September 23, 2011

रास्ते का पत्थर

रास्ते का पत्थर 

वो ठोकरें खाता ,
मगर लोग गिर जाते |
किसी के जूते फट जाते ,
कोई अंगूठे पे चोट खाता ,
कोई मुँह के बल गिरता ,
किसी के दाँत गिर जाते |
कोई जो संभल कर चलता 
तो लाँघकर निकल जाता ,
अपनी ही धुन के मतवाले 
अक्सर चोट खा जाते |
कोई इतना नहीं करता 
कि झुककर उठा दे उसको ,
किनारे रख दे ताकि 
और कोई चोट न खाये |
मिटटी - पानी की संगत से 
वो जम चूका है अब वहीं, 
बिन आयास - आलम्ब के 
अब उखड सकता है नहीं |
जाने कितनी पीढियाँ
अभी और ठोकर खायेंगी !
उखाड़ फेंकेंगी उसे 
या लाँघकर ही जायेंगी |
वक़्त रहते रास्ते का 
वो पत्थर हटा दिया जाता ,
क्यों लाँघना होता उसे ,
क्यों बेवजह कोई चोट खाता !

                                                         "प्रवेश "

रूढ़िवादिता को रास्ते का पत्थर कहा गया है |

                                                                     

1 comment:

  1. ohh sahi kaha dost.. aur bahaut sunder tarike se tumne in rudhiyon ko darshaya hai apni is rachna main
    jo log pahale hi hata dete is betartib ravayaton ko...... to aaj baat kuch or hoti

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