Monday, June 20, 2011

कल का अखबार

कल का अख़बार 

कल सुबह 
साईकिल की टोकरी में बैठकर 
इस घर तक आया था ,
सबसे पहले मुझे 
दादीजी ने देखा और 
दादाजी को बताया |
दादाजी ने बड़े प्यार से 
मेरा दीदार किया |
कभी मंद- मंद मुस्काए ,
कभी भौंहे चढ़ा ली |
धीरे -धीरे  मुझे 
हर सदस्य ढूँढने लगा |
किसी ने ' समाज '
किसी ने ' परिवार '
किसी ने 'खेल '
तो किसी ने 'शेयर '
एक - एक कर सभी पन्ने 
अलग कर दिए |
धीरे - धीरे सब अपने 
काम में व्यस्त होने लगे ,
जो जहाँ था उसने 
वहीँ पन्ने छोड़ दिये |
शाम होते - होते 
मेरी अहमियत 
समाप्त हो चुकी थी |
आज सुबह मेरे 
सभी पन्ने समेटे गये ,
और ' कल का अख़बार '
कहकर डाल दिया रद्दी में |
कल मेरी कीमत 
तीन रुपये थी ,
आज प्रति किलो तीन रुपये के 
ढेर में पड़ा हूँ |
कभी हाथों - हाथ लिया ,
कभी गोद में बिठाया ,
कभी सीने से लगाया ,
कभी चूमा भी मुझे कल तक ,
लेकिन आज ... आज मैं बेकार हूँ |
जी हाँ.. मैं कल का अख़बार हूँ |

                                               "प्रवेश "

2 comments:

  1. woooo....bahaut badhiya
    bechare akhbar ka hr roz yahi harsh hota hai

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  2. gunjan ji .. aajkal agle din insan ki kadra nahi hoti.. akhbar ka ye hasra to kuchh bhi nahi..

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